वारासिवनी शहर की तरह ही, वारासिवनी साड़ियाँ भी अपनी शालीन भव्यता और मोहक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं और यहाँ हथकरघा साड़ी उत्पादन का एक समृद्ध इतिहास है. बताया जाता है कि बुनकर-समुदाय ‘कोश्ती’ का नाम ‘कोसा’ या तसर सिल्क से आया है, जबकि ‘सा लेवा’ की उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘शालिक’ से मानी जाती है जिसका अर्थ है बुनकर.
कलारूप
इस बात के दस्तावेजी साक्ष्य हैं कि बालाघाट जिले के वारासिवनी में बुनाई का काम 250 से अधिक वर्षों से चल रहा है. इस कपड़े की बुनाई रुखड़े, मोटे सूती धागे से की जाती है जिसे मूल रूप से 10 से लेकर 20 तक की धागा-गणना (यार्न काउंट) के धागे से बुन जाता था. बुनकर अब धीरे-धीरे सिल्क और फाइबरों के मिश्रण का उपयोग करने लगे हैं. इन साड़ियों को वैनगंगा सूती साड़ियाँ भी कहते हैं. साड़ियों की किनारी, जिसे भाग या नक्शीकिनार कहते हैं, रंग-बिरंगी धारियों और चारखानों से सजी होती हैं.
जीआई टैग
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