जयपुर की इस सुप्रसिद्ध पारंपरिक कला को यह नाम इसलिए दिया गया कि मिट्टी के बर्तन बनाने की इस कला में कोबाल्ट नील रंजक का भरपूर उपयोग होता है. यद्यपि यह कला मिट्टी के बर्तन बनाने की है लेकिन इसमें मिट्टी के स्थान पर स्फटिक (क्वार्ट्ज) पत्थर के चूर्ण, शीशे के चूर्ण, सुहागा (बोरेक्स), गोंद, मुल्तानी मिट्टी और पानी को गूँध कर लोई तैयार की जाती है.
कला
यह कला तुर्क-फारसी मूल की है और इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें मिट्टी का इस्तेमाल नहीं होता. बर्तन निर्माण की इस कला की प्रक्रिया जटिल है जिसमें कई कदम शामिल हैं – ढालना, घुमाना (रॉल करना), चपटा करना, सुखाना, वांछित रूपाकार देना और पॉलिश करना. सुखाया और रोगन किया हुआ पात्र अंतिम उत्पाद होता है जिसे कोबाल्ट ऑक्साइड और खाद्य गोंद के घोल से सजाया जाता है. रंगने के लिए अन्य धातुओं के ऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता है. ब्रश से लगाए जाने के पहले ऑक्साइडों को खाद्य गोंद के साथ मिलाकर पत्थर पर कूटा जाता है.
जीआई टैग
समय के साथ जयपुर की इस कला में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री, शैली और रूप की दृष्टि से उल्लेखनीय विकास हुआ है. इस लोकप्रिय कला को और ऊँचाई पर ले जाने के लिए इसे नाबार्ड के सहयोग से 2006 में जीआई के अंतर्गत पंजीकृत किया गया. नाबार्ड ने इस समुदाय के कारीगरों/ उत्पादकों को प्राधिकृत उपयोगकर्ता के रूप में पंजीकृत कराने के लिए भी कदम उठाए.